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Sunday, June 19, 2022

समर्पण, पूर्ण समर्पण

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जिदंगी मे दो शब्द बहुत खास है:           

*प्रेम और ध्यान*

ये हमारे अस्तित्व के मंदिर के दो विराट दरवाजे हैं।

एक का नाम प्रेम, 

एक का नाम ध्यान।

चाहो तो प्रेम से प्रवेश कर जाओ, चाहो तो ध्यान से प्रवेश कर जाओ।

शर्त एक ही है :-

अहंकार दोनों में छोड़ना होगा।

How significant..

Exploring further on this found an article by Osho on the same...

Sharing herewith..alongside how I perceive the subject:-

As Osho explained in one of his lectures..... 

ध्यान का लक्ष्य मुक्ति है।            

प्रेम का लक्ष्य है आनंद।

यद्यपि मुक्ति और आनंद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसको मुक्ति मिली, उसे आनंद भी मिलता है। और जिसे आनंद मिला, उसे मुक्ति भी मिलती है। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

लेकिन चूंकि ज्ञानी ध्यान की ही बात करता है और ध्यान के रास्ते से चलते-चलते धीरे-धीरे अपने को मुक्त करता है, इसीलिए जब मोक्ष का क्षण आता है तो वह मोक्ष को ही प्रथम व पूर्ण मानता है। स्वभावतः, उसके लिए आनंद गौण है, मोक्ष की छाया की तरह है उसके लिए आंनद।

ध्यानी मोक्ष के संबंध में वर्षों तक चिंतन करता है। वही सोचा, वही विचारा, वही ध्याना। उसके रग-रग रोएं-रोएं में बस एक ही पुकार है : स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! जब परमात्मा के निकट आता है तो उसे जो उसने चाहा है, वह मिलता है। पर दूसरी बात भी मिलती है भेंट-स्वरूप, साथ-साथ; लेकिन जो उसने चाहा वह उसे दिखायी पड़ता है।स्वतंत्रता! मुक्ति। मोक्ष।

प्रेम भक्ति है।

और भक्त की पुकार है आनंद ! वियोग, संयोग, चिंतन, मनन ,रीत विधि,ध्यान,मुद्रा, चक्र भेद, सिद्धि-रिद्धि व भेद भाव से परे, वह बस एक प्रेमी है।

भक्त बस मस्त प्रेमी,सदैव आनंद उत्सव में कि मैं नाचूं, मगन होकर गाऊँ!  कितने दिन से पदों में घुंघरूं बांधकर नाच जारी है, नाचते गाते जनम जन्मांतर बीत गए। 

{ My reference point : ना जाने कितने युगों से भिन्न भिन्न जन्म लेकर श्री हरिदास जी निकुँज में अकेले बैठ कर सदियों प्रेम गीत गाते रहे अपने प्रिया प्रियतम को रिझाते रहे। }

बुद्ध कितने वर्ष ध्यान के तप में बैठे रहे और बिल्कुल मूर्ति की तरह! और रह गए–शांत, जब उनको परम घटना घटी। सात दिन तक कहते हैं, हिले नहीं,  डुले नहीं, बैठे ही रहे। देवता भी डर गए कि यह क्या इसी तरह समाप्त हो जाएंगे! देवताओं ने आकर चरण छुए, हिलाया-डुलाया और कहा कि महाराज, आप कुछ तो बोलें। इतनी-इतनी सदियों के बाद कभी कोई आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, अनेक लोगों को लाभ होगा, आप कुछ बोलें, आप चुप क्यों बैठे हैं? सात दिन से हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।

बुद्ध का मन बोलने का भी न था। बोलने में भी हल-चल हो जाएगी, थोड़ी गति हो जाएगी। बुद्ध तो ध्यानस्थ बैठे थे। वह ध्यान चुप्पी थी, वह चुप्पी हल चल शून्य थी, कंपन-रहित थी। 

यह ध्यान की पराकाष्ठा है। 

और मीरा को जब यही घटना घटी, तब वह नाची, खूब नाची,और आंखों ने अविरल आँसूओं की गंगा यमुना बहा कर परम् से मिलन अभिषेक कर लिया। 

{As how I c : और श्री हरिदास ने तो अपनी ही बात प्रेमपूर्वक मनवा भी ली और जगत को श्री बाँके बिहारी रूप में लाडली जी और लाडले के दर्श का मानव गण को युगों युगों तक का सौभग्य भी प्राप्त करा दिया। }

यह प्रेम की दिव्यता है।

क्या यह दोनों अलग-अलग घटनाएं घटीं? 

नहीं, ये दो अलग ढंग के व्यक्ति थे, घटना तो एक ही घटी।

And as I perceive..

एक का ध्यान का भाव रहा और एक का प्रेम का।

अगर कुछ common रहा तो उनका अहंकार रहित जीवन।

अगर कुछ common रहा तो उनका समर्पण भाव।

पात्रता का पहला नियम..... 

समपर्ण ,  ....                             

पूर्ण समर्पण !!

🌹🙏🏻राधे राधे🙏🏻🌹