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Thursday, June 23, 2022

शून्य , Nothingness

 प्रेम गली अति सांकरी वा में दो ना समाय।। 
(संत कबीर)

अर्थात:
जब भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। 
वो दो नहीं रहते। 
ये ही अद्वैत है जहां दो नहीं। 
वस्तुतः दो का ना होना, एक होना भी नहीं। 

"वरन सिर्फ शून्य रह जाना है।"
Zero...State of Nothingness

इसी को बुद्ध (बौद्ध) ने निर्वाण (दिए का बुझ जाना) कहा।

इसे भगवान महावीर ने केवल्य कहा, जिसमें कोई गिनती का शुरू और अंत नहीं। ना कुछ कहना ही है। जिस को बताने का जो तरीका है, अद्वैत कहा गया।

Where as :

जब तक भक्ति करने वाला है तब तक तो भगवान भी हैं मतलब दो जन हैं, यह हुआ द्वैत। जब तक यह भेद है , भोग पूजन , पाप पुण्य , कर्म  निष्कर्म इत्यादि की भाषा जारी रहेगी !! 

श्रीमद्भागवत : 9/4/63

श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ 

अनुवाद: 

भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं ।

🙏🏻

यूँ तो श्री गीता का समूचा ज्ञान ही अद्वैत का है still referring to a few quotes from it..

भगवद् गीता: अध्याय 15,श्लोक 14:
जो पुरुषोत्तम योग में भी कहा गया है:

अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् || १४ ||

मैं ही सब प्रणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।।14।। 

I am the fire of digestion in every living body, and I am the air of life, outgoing and incoming, by which I digest the four kinds of foodstuff. (14)

(इस श्लोक की "भी" व्याख्या श्रद्धेय श्री रामसुखदास जी ने अभूतपूर्व की है, पड़ेंगे तो और भी clarity आएगी।)

एक का बोध हो जाये तो "स्वंय" या "मैं" तो मिट ही गया और तब जो भी क्रिया आपके द्वारा होगी वो आप ही आप ईश्वरीय हो जाएगी, वो ही प्रसाद बन जायेगी, अलौकिक हो जाएगी।

श्री गीता जी :15.19
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥ १९॥

हे भरतवंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।।

इस साधक का प्रयास कहता है,           

                                                                  
रे सखी सुन! 
यह तन निज वन श्री कुँज, 
मन है गोलोक, 
नयन श्यामा-श्याम की मधुर झांकी
व हृदय, प्रिया प्रियतम की सेज़! 
अपने में ही जो समाए हैं,
सदैव अपने राधेश्याम,
उन्हें निरवैर हो, निर्मल हो नमन कर 
व एकाकार हो जा!!


Listen my friend! 
This body is their arbour, mind is abode, eyes their glares & Shyama-Shyam's throne to settle, is our heart. The one who are eternally present with in us, our  Shri Radheshyam, remove all your malice, with Purity, bow to them & become one with Lord..


🌹🙏🏻राधे राधे🙏🏻🌹