रे मन!
प्रारब्ध पहले रचा ,
फिर जना इंसान,
चल सके जो रची राह पर, बिन अपना कुछ जान,
वही है पौरुष,वही पुरषार्थ,
फ़क़त बात है इतनी सी ,
मान सके तो मान।(साधक प्रयास)
पुरषार्थ, सकारात्मक कर्म है , और सकारात्मक कर्म वही है कि जो भी आपको assign किया जाय वह बगैर अपना कोई स्वार्थ मीन मेख , लालच, पसंद ना पसंद के पूर्ण किया जाए।
हमारा सबसे महत्वपूर्ण कर्म , इस universe के सृजन का है, ईश्वर को मानें या ना मानें, आप तो हैं, और आपसे यह संसार, जो हर पल आपसे दूसरे को transfer हो रहा है,
बस आप जो कर रहे हैं उसे सकारात्मक ऊर्जा से, सकारात्मक सोच से करें, पौरुष पूर्ण पुरषार्थ हो जाएगा। (irrespective / unfazed of its outcome..)
जैसे बीज और फल।
For example:
A..हम कहाँ, किस घर, किन माता पिता को, किस धर्म में, किस लिंग में अवतारित हुए हैं , यह हमने तो decide नहीं किया, pre assigned है, now we shall follow the social system n thus live our life under the impression of fulfilling the responsibilities accordingly..
B.. being born is also the result of process , बीज से फल, फल से बीज.. thus we shall remain focused on what we prefer... besides the social stigmas...
Or shall we simply sail with detachment towards one & all but still fulfilling what is expected...
We can be a sadhu, detached but completing our journey as responsibly as any homely person... Example - Uddhav / or in current times so far Sadguru Jaggi ..
Or we can be an entrepreneur , still detached, but living in social form of society as expected...Like - "Sant Kabir"..
या सामान्य गृहस्थ जैसे , *गोपियाँ, गोप, मीरा* फिर भी निर्लिप्त।
बुद्ध होने में पुरषार्थ है तो मीरा जैसे गृहस्थ हो कर भी निर्लिप्त रहना पौरुष पूर्ण है।
जरुरत है तो अपने को इस सम्पूर्ण संरचना का एक अहम हिस्सा जानना और जो घट रहा है उसे सिर्फ द्रष्टा भाव से नहीं बल्कि साक्षी बन कर अपनी सकारात्मक ऊर्जा से संजोने की..
निर्लिप्ता - Detachment:
पर एक बहुत रोचक व ज्ञानपूर्ण प्रसंग है श्री कृष्ण लीला में आता है ..
अगस्त्य ऋषि जमुना किनारे आकर कुछ समय रुके तो गोपियाँ उन्हें भोग लगाने नियमित रूप से जाने का विचार बनाने लगीं।
तब गोपियों ने श्री कृष्ण से अपनी इच्छा प्रकट करी और अपनी समस्या का निवारण भी जानना चाहा कि :-
हे कृष्ण! हमें अगस्त्य ऋषि को भोग लगाने जाना है और ये यमुना जी बीच में पड़ती हैं अब बताओ कैसे जावें ?
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि जब तुम यमुना जी के पास जाओ तो कहना कि :-– हे यमुना जी ! अगर श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हैं तो हमें रास्ता दें ।
गोपियाँ हँसने लगीं कि लो ये कृष्ण भी अपने आप को ब्रह्मचारी समझते हैं , सारा दिन तो हमारे पीछे-पीछे रास रचाता घूमता है, कभी हमारे वस्त्र चुराता है , कभी मटकियाँ फोड़ता है , कभी हमारे घर में घुसकर माखन चुराता है , कोई बात नहीं , फिर भी हम बोल देंगी ।
गोपियाँ यमुना जी के पास जाकर कहती हैं कि – हे यमुना महारानीजी ! अगर श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हैं तो हमें रास्ता दे दो और गोपियों के कहते ही यमुना जी ने रास्ता दे दिया । गोपियाँ तो आश्चर्यचकित रह गईं कि यह क्या हुआ कृष्ण ब्रह्मचारी ?
अब गोपियाँ अगस्त्य ऋषि को भोजन करवा कर वापिस आने लगीं तो अगस्त्य ऋषि से कहा कि महात्माजी ! अब हम घर कैसे जायें , यमुना जी बीच में हैं ?
अगस्त्य ऋषि ने कहा कि:- *तुम यमुना जी को कहना कि अगर अगस्त्य जी निराहार हैं तो हमें रास्ता दे दो ।*
गोपियाँ मन में सोचने लगीं कि अभी-अभी तो हम इतना सारा भोजन लाईं थीं , सो सबका सब खा गये और अब अपने आप को निराहार बता रहे हैं ,इन महात्माजी की भी क्या विचित्र बात है ?
गोपियाँ यमुना जी के पास जाकर बोलीं कि – हे यमुना जी ! अगर अगस्त्य ऋषि निराहार हैं तो हमें रास्ता दे दो और यमुना जी ने रास्ता दे दिया ।
गोपियाँ आश्चर्य करने लगीं कि जो खाता है वो निराहार कैसे हो सकता है और जो दिन रात हमारे पीछे- पीछे घूमता-फिरता है वो ब्रह्मचारी कैसे हो सकता है ? इसी विचार-चिंतन में गोपियों ने श्री कृष्ण के पास आकर फिर से वही प्रश्न किया कि आप ब्रह्मचारी कैसे हैं ?
भगवान् श्री कृष्ण कहने लगे :- गोपियों ! मुझे तुमारी देह से कोई लेना देना नही है, मैं तो तुम्हारे प्रेम के भाव को देख कर तुम्हारे पीछे आता हूँ , मैंने कभी वासना के तहत संसार नहीं भोगा है । मैं तो निर्मोही हूँ , इसलिए यमुना ने आप को मार्ग दे दिया ।*
तब गोपियाँ बोलीं कि भगवन् ! मुनिराज ने तो हमारे सामने भोजन ग्रहण किया फिर भी वह बोले कि अगत्स्य आजन्म उपवासी हों तो हे यमुना मैया ! मार्ग दे दें और बड़े आश्चर्य की बात है कि यमुनाजी ने हमको मार्ग दे दिया ।
श्री कृष्ण हँसने लगे और बोले कि :- *अगत्स्य आजन्म उपवासी ही हैं , क्योंकि अगत्स्य मुनि भोजन ग्रहण करने से पहले मुझे भोग लगाते हैं और उनका भोजन में कोई मोह नहीं नहीं होता , उनके मन में कभी भी यह विचार नहीं होता कि मैं भोजन करुँ या भोजन कर रहा हूँ । वह तो अपने अंदर विराजमान मुझे भोजन करा रहे होते हैं इसलिए वो आजन्म उपवासी हें ।*
यह सुनकर और परम सत्य को जानकर गोपियाँ श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक हो गयीं ।
इस कथा में भगवान श्री कृष्ण जो कि भक्तवत्सल हैं, गोपियों के मन चेतन पर पड़े दृष्टि भ्रम को भी दूर किया था।
*:श्री कृष्णाय नम:*।।
*श्रीकृष्ण उवाच*
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: । बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित: सततं भव ।।
Mentally resigning all your duties to Me, and taking recourse to Yoga. in the form of even-mindedness, be solely devoted to Me and constantly give your mind to Me.
सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो ।।
श्री भगवद्गीता जी अध्याय 18, श्लोक 57।।
In my opinion,
इस अवस्था को प्राप्त हो जाना ही पौरुष पूर्ण पुरषार्थ है।
🌹🙏🏻राधे राधे🙏🌹
No comments:
Post a Comment