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Wednesday, January 24, 2018

सगुण साकार - ईश्वरीय रूप या - हमारे स्वार्थ की मूरत

   

 सगुण साकार ईश्वरीय रूप 

या हमारे स्वार्थ की मूरत 

                              
सगुण साकार व् निर्गुण निराकार 

    सगुण साकार को समझने के लिए, प्यार, अधिकार और भोग या योग का भेद जानना जरूरी हो जाता है,

   ! प्यार या अधिकार !       

  ! Love  OR  Authority / Right !    

प्रेम - भोग या योग ?

LOVE -  Material Attachment or Material Abstraction
  
क्या तुम हमसे प्यार नहीं करते ? तो हमारी बात क्यों नहीं मानते ?
देखो हम तो तुम्हारी सब बातें मान लेते हैं, क्योंकि हम तो तुमसे बहुत प्यार करते हैं !!
अरे ! कैसे नहीं मानोगे ? जब हम कह रहें हैं तो आप मना कैसे कर सकते हो !
बस इतना ही हमारा मान है , बस इतना ही प्यार है ,
या 
अरे, वह तो करेंगे ही,बहुत मान देते हैं, बहुत प्यार है !!
 आप बस हमारा नाम ले लीजियेगा, बात बन जाएगी !! 
    
ये एक बहुत ही सामान्य वार्ता है जो हम हर रिश्ते में लाड़ से या हक़ से इस्तेमाल करते हैं ,
अपने बच्चों से , भाई बहन , माता पिता , पति पत्नी , सगे संबंधियों, दोस्तों आदि से ,
I care about you cause I love you ..
what a common phrase
used in every and all kind of relationships we nourish ,

पर क्या ये प्रेम की अवस्था है 

या ये रिश्तों की वह जमीं है जहाँ हमारे जानकार को प्रेम परीक्षा देनी है ?

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 यहाँ हर इंसान दूसरे इंसान को अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है 
चाहे कर्मों से चाहे बातों से ,
इसलिए या तो शरीर को सजाते हैं
या जो कुछ भी दूसरे के लिए कर रहे होतें है, उसे सजावटी बना कर,
क्योंकि  
संसार में हर इंसान दूसरे इंसान से सिर्फ अपने लिए सुख लेना चाहता है ,
प्रेम का , अधिकार का !!
प्रेम और अधिकार एक ही लाठी के दो सिरे हैं 
हम जब प्रेम करते हैं तो प्रेमी पर अपना होने का बोझ भी डाल देते हैं,
यहाँ प्रेमी सिर्फ  बॉयफ्रेंड / गर्लफ्रेंड नहीं ,बल्कि दो ऐसे जीव हैं
जो कोई भी सम्बंध से जुड़े हों , ये इंसान और जानवर भी हो सकते हैं
और कमाल की बात तो ये है की हम इंसान बेजुबान जानवर को भी
इस प्रेम से जुड़े अधिकार में खींच लेते हैं !
  
तो क्या प्रेम का मतलब अधिकार है ? 
क्या ये प्रेम, प्रेम है या फिर स्वार्थ ,   
                       स्वार्थ अपने को अच्छा कहलाये जाने का ?
और सिर्फ ये ही नहीं बल्कि
ईश्वर की आराधना भी अपने सुख आनंद के लिए ही की जाती है,
लोग बड़े बड़े यज्ञ, तप , हवन , जागरण 
 इत्यादि करवाते हैं और बुलावे में कहते हैं 
फलां के सौजन्ये से , या निवेदक , या अपने संगठन का नाम लगा देते हैं ! 
क्या ये प्रभु प्रेम है या फिर स्वार्थ ,   

स्वार्थ अपने को अच्छा कहलाये जाने का ?
स्वार्थ अपने भोग विलास को पाने का
स्वार्थ अपने को सक्षम बनाए रखने का
स्वार्थ अपने अपने डर से बचे रहने का
स्वार्थ अपनी, जगत के अनुपात से कमियों को दूर करने का
स्वार्थ अपनी रक्षा के लिए
एक सक्षम बहुअयामी ,
बहुप्रतिभाशाली व्यक्तित्व का

और इस स्वार्थ पूर्ति या इच्छा पूर्ति के लिए
इच्छा पूरक का आकार होना जरूरी हो जाता है
इच्छा पूरक का गुणवान होना जरूरी हो जाता है
और हमारी यही लालसा , कामना , स्वार्थ , जन्म दाता है
उस रूप का जिसे हम पूजा घरों में, चित्रों में, अपने ध्यान में ,ढूंढते हैं ,
अनुभव करते हैं , और कुछ दर्शन भी होने की बात करते हैं ,

तो क्या ये प्रेम भोग नहीं कहलायेगा ?
 प्यार में अधिकार जताने का योग ही वो वजह है
जिससे हमारा हर सम्बन्ध सिर्फ लेन देन का रह गया है,
सिर्फ लोगों का लोगों से ही नहीं ,
हमने परमात्मा को भी व्यापारी बना दिया है ,
ऐसा परम शक्तिवान जो इतना कमज़ोर है की वह ईर्ष्या , क्रोध,
यहाँ तक की छूत अछूत से भी बंधा हुआ है...
बगैर नहाए धोये उसे छु नहीं सकते , क्रोधित हो जायेगा , दंड दे देगा ,
उसे फलां फलां भोग लगाओ , प्रसन्न हो कर वर देगा ,

और तो और सीधे सीधे लेन देन से नहीं तो अपने मन के उस ढृढ़ विश्वास से
जो कहता है ये जो करेंगे अच्छा करेंगे हमें मांगने की क्या जररूत  है ?
और ऐसे ही लोग कहते नज़र आते हैं की हमसे तो कुछ माँगा ही नहीं जाता
पर रिश्ता तो तब भी व्यापारिक रहा मांगो न मांगो धनी तो तनख़्वा देगा ही


अरे ! ये तो मनुष्य योनि के वकार हैं ,
प्रभु में यह सब कैसे ??
अब जब सगुन साकार में देखोगे तो विकार कैसे नहीं आएंगे
जिस रूप में कर्म हैं , फल तो होंगे ही

   और ये ही सगुण साकार ईश्वर और निर्गुण निराकार परमात्मा का भेद है ,  

अपने स्वार्थ या अपनी पसंद के लिए किया जाने वाला हर कर्म भोग है  



और जो प्रभु बनाम मानवता की पसंद के लिए हो वो योग !!
और गहराई से सोचें तो , 

क्या - प्यार में अधिकार रखना या देना,

दोनों  सूरतें 

   अहंकार की जन्मभूभि नहीं ,    


"प्रेम एक सोच है, एक भाव है"

और भाव किसी आकार का या अधिकार का मोहताज नहीं है !
हम सब प्रकृति प्रेमी हैं
पर क्या हमारा प्रकृति के आकार व आचरण पर कोई अधिकार है ?
 क्या हम प्रकृति को इसलिए चाहते हैं क्योंकि हमारा उससे कोई संबंध है ?
क्या इसलिए क्योंकि प्रकृति हमसे प्रेम करती है ?
या फिर प्रकृति के अपने ही गुंणों के कारण ,
ये प्रकृति ही परमात्मा की परम माया है
अमिट , अकारण , अछूत , अचल , अविनाशी  
जो सदा से हमें ललचाती , लुभाती है 
यहाँ हम सिर्फ पेड़ पौधों या नदी पर्वत की बात नहीं कर रहे ,
प्रजननशील से प्रजन होना और उस जनित से हमारा संबंध
ये सब प्राकृतिक घटना है और फिर तमाम उम्र उस जनित के ही 
चक्कर में फंसा इंसान उस परम माया के आधीन हो जाता है  
और फिर ढूंढ़ने लगता है उस ताकत को
जो इस यात्रा में उसकी मदद कर सके, 
जिसके लिए आधार हो ही जाता है
माया का सगुण साकार रूप  
और ये ही आम चलन में 
प्रभु का वो साकार रूप है,
जिसे हम मानते हैं 
और हम जिसके आधीन हो जाते हैं !!

 यह माया इतनी प्रभावशाली है की....
पूजय श्रद्धेय "श्री गोस्वामी बिंदु जी महाराज" 
सरीखे उपासक भी इसके प्रभाव से बचने के लिए ,
 श्री कृष्ण से ही गुहार लगा बैठे और कहने लगे -


मैं अगर देखूँ तो देखूँ , तुम ना मुझको  देखना ,
तुमने गर देखा तो फिर मशहूर हो जाऊँगा मैं !
इश्क़ एक तरफ़ा में, यूँ मगरूर हो जाऊँगा मैं, 
श्याम तुम होगे शमा , काफ़ूर हो जाऊँगा मैं !
मैं अगर माँगूँ जो तुमसे, मुझको तुम देना ना कुछ, 
वर्ना फिर प्रेमी नहीं मज़दूर हो जाऊँगा मैं !
मैं अगर चाहूँ तो चाहूँ , तुम मुझको चाहना, 
तुमने ने गर चाहा मुझे तो मग़रूर हो जाऊँगा मैं !
मैं अगर देखूँ तो देखूँ , तुम ना मुझको  देखना,
तुमने गर देखा तो फिर मशहूर हो जाऊँगा मैं !
और मैं अगर तड़पूँ तो द्रिग से "बिंदु" टपकाना ना तुम,   
वरना आँखौं से तुम्हारी दूर हो जाऊँगा मैं  !!  

!! नमस्कार है ऐसे उपासक को !!

  ये वो उद्धारण हैं जो सिखाते हैं की , 
जिस प्रकृति के आधीन होकर हम ता उम्र गुलाम हो जाते हैं
अपनी ही कामनाओं की आस्थाओं के, 
असल में क्या उसकी उत्पति हमसे सेवा भोगने के लिए है
या हमारी सेवा के लिए ?  
या
ये एक स्वाभाविक , प्राकृतिक क्रिया है ,
जिसका हमारे अहम् , अहंकार , कर्तापन , 
से कोई लेना देना नहीं !!


श्रीमद भगवद गीता अध्याय 5 श्लोक 14 में श्री कृष्ण ने कहा है 
"भगवानुवाच"
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)
भावार्थ : परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्म फल के संयोग की ही रचना करते हैं, किंतु स्वभाव ही बर्त रहा है ।। १४ ।।
जीवात्मा देह का कर्ता न होने के कारण इस लोक में उसके द्वारा न तो कर्म उत्पन्न होते हैं और न ही कर्म-फलों से कोई सम्बन्ध रहता है बल्कि यह सब प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किये जाते है। (१४)
The Lord does not create the performance of actions (or Karma ), nor Karma itself, nor even the result of Karma. It is simply all due to nature performing its function in the world.
(However, nature derives its motivation power from God.)
gita adhyay 5 shloka 14 के लिए इमेज परिणाम

 प्रकृति एक तरफ़ा प्रेम है,
उसमें हमारे में गुण , अवगुण , समर्थ , सक्षम , का भेद ही नहीं है
यह सबके लिये समान है ,
इसीलिए इसमें भोग का नहीं सिर्फ योग का प्रभाव है

श्रीमद भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक 6 में श्री कृष्ण ने यह योग भी कहा है 
"भगवानुवाच"
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (६)


भावार्थ : यधपि मैं अजन्मा और अविनाशी समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर (स्वामी) होते हुए भी अपनी अपरा-प्रकृति (महा-माया) को अधीन करके अपनी परा-प्रकृति (योग-माया) से प्रकट होता हूँ। (६)

O Arjuna, although birth and death do not exist for Me, since I am the immortal Lord, I appear on earth, by my Divine powers and ability, keeping My nature (Maya) under control.

 और जब हम इसे पहचान जाते हैं ,
तो एकलय हो जाते हैं 
तब जान पाते हैं उस प्रकृति को,
उस निर्गुण और निराकार को ,
उस परम तत्व को 
 जो सबके लिए समान है,

और जो सबके लिए समान है
   वह ईश्वरीय है , अलौकिक है ,  
वह सिर्फ रिक्त है ,

 और जो रिक्त है वो ही शांत है

  और जो शांत है
 वही शिव है
  वही कृष्ण है

   एक तरफ़ा प्रेम की ताकत ही अलग है ,
 पर क्या ?

   निर्गुण निराकार साधना भी - अहंकार का स्तोत्र नहीं ??



   

 
  

1 comment:

  1. सगुण साकार ! great article ! very unique information you provides to user thanks for sharing this . Keep posting....

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